2025 में जातीय जनगणना क्यों— एक सामाजिक आवश्यकता या राजनीतिक चाल?

भारत विविधताओं से भरा एक देश है — भाषा, धर्म, और जाति यहाँ की पहचान हैं। आज़ादी के 75 वर्षों बाद भी जाति की जड़ें भारतीय समाज में गहरी हैं। ऐसे में 2025 में जातीय जनगणना का निर्णय केवल आंकड़ों का संग्रह भर नहीं है, यह एक बड़ा सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक कदम है। 
1871 में, अंग्रेजों द्वारा भारत के कुछ शहरों में, जैसे मद्रास और बम्बई में, जातीय जनगणना करवाई गई थी। मद्रास में 1871 में और बम्बई में 1872 में जनगणना हुई थी। पूरे भारत में पहली बार जातीय जनगणना 1872 में अंग्रेजों द्वारा करवाई गई थी। अंग्रेजों का उद्देश्य था ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति के तहत भारतीय समाज को जातियों में बाँट कर नियंत्रित करना। अंग्रेजों का उद्देश्य था भारतीय समाज को जाति, धर्म, और भाषा के आधार पर बाँटना, ताकि वे आसानी से शासन कर सकें। जातीय जनगणना उनके लिए एक प्रशासनिक औज़ार (administrative tool) थी, ना कि सामाजिक कल्याण का साधन। उन्होंने समाज को बाँटने के लिए इन आंकड़ों का दुरुपयोग किया। आखिरी बार पूरे भारत में जातियों की गणना 1931 में हुई थी। आज़ादी के बाद से अब तक केवल अनुसूचित जातियों (SC) और अनुसूचित जनजातियों (ST) का ही डेटा लिया जाता है। ओबीसी और अन्य जातियों की गणना नहीं की जाती रही।
वर्तमान समय में जातीय जनगणना की आवश्यकता क्यों?
1. सटीक आंकड़े: सरकारी योजनाओं और आरक्षण नीतियों को प्रभावी बनाने के लिए सही डेटा का होना ज़रूरी है।
2. समाज में संतुलन: यह जानना आवश्यक है कि किन वर्गों तक सरकारी लाभ पहुँच रहे हैं और कौन अब भी वंचित है।
3. नीतियों का आधार: अनुमान की बजाय वास्तविक आंकड़ों के आधार पर नीतियाँ बनाई जा सकती हैं।
4. सामाजिक न्याय: इससे उन वर्गों की पहचान हो पाएगी जो शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार में पीछे हैं।
भविष्य में देश पर जातीय  जनगणना से देश में डेटा आधारित शासन को बढ़ावा मिलेगा। इससे विकास योजनाओं को बेहतर ढंग से ज़रूरतमंदों तक पहुँचाया जा सकेगा। इसके माध्यम से समान अवसर, सामाजिक समरसता, और राजनीतिक भागीदारी को बढ़ावा मिलेगा। हालाँकि, यदि इस डेटा का दुरुपयोग हुआ, तो इससे समाज में जातिगत खाई और भी गहरी हो सकती है।
कांग्रेस पार्टी, जो वर्षों से जातीय जनगणना की मांग करती रही है, अब जब केंद्र की भाजपा सरकार इसे लागू करने की दिशा में बढ़ी है, तो उसने इसे "राजनीतिक दबाव" का परिणाम बताया है। यह विरोधाभास अपने आप में सवाल खड़ा करता है कि जब कांग्रेस सत्ता में थी, तब उसने क्यों इस मुद्दे को केवल फाइलों तक सीमित रखा? क्या उसे डर था कि इस जनगणना के परिणाम से उत्पन्न जनमत से राजनीतिक समीकरण बिगड़ सकते हैं?
जिस प्रकार 1979 में प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई की सरकार द्वारा मंडल आयोग का गठन किया  उसका उद्देश्य था कि– देश में सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों (OBC) की पहचान कर उन्हें समान अवसर उपलब्ध कराना। लेकिन जब मंडल आयोग की रिपोर्ट 1980 में सामने आई थी, जिसमें बताया गया कि OBC की जनसंख्या लगभग 52% है और उन्हें 27% आरक्षण मिलना चाहिए। लेकिन 1990 में जब प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह ने मंडल आयोग की सिफारिशों के तहत सरकारी नौकरियों में अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) को 27% आरक्षण देने का ऐतिहासिक निर्णय लिया, तो यह सामाजिक न्याय की दिशा में एक क्रांतिकारी कदम था। परंतु इसका स्वागत नहीं, विरोध हुआ — और वह भी सबसे अधिक पढ़े-लिखे युवाओं द्वारा।

दिल्ली विश्वविद्यालय, एम्स, IIT जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों में छात्रों ने व्यापक आंदोलन किए। विरोध की आग इतनी बढ़ गई कि कई जगह आत्मदाह की घटनाएं हुईं। सबसे ज्यादा चर्चित नाम बना राजीव गोस्वामी, जिसने खुद को आग लगा ली। यह विरोध सिर्फ नीतियों का नहीं, व्यवस्था की उस नींव का था जिसमें वर्षों से जातिगत विशेषाधिकार बिना सवाल के चलते आ रहे थे।

इन घटनाओं ने कांग्रेस सहित पूरे राजनीतिक वर्ग को झकझोर दिया। कांग्रेस सरकार ने साफ समझ लिया कि अगर OBC की वास्तविक जनसंख्या आंकड़ों सहित सामने आ गई, तो सत्ता का संतुलन पूरी तरह बदल सकता है। इसी डर से 1931 के बाद कभी भी पूर्ण जातीय जनगणना नहीं करवाई गई। मंडल आयोग की रिपोर्ट भी 1931 की जनगणना पर आधारित रह गई और आंकड़े ‘सिर्फ सरकारी फाइलों’ तक सीमित कर दिए गए।

आज जब 2025 की जातीय जनगणना की चर्चा फिर गर्म है, और बिहार जैसे राज्यों ने OBC की संख्या सार्वजनिक कर दी है, तो एक बार फिर राजनीति में हलचल है। अगर पूरे देश में यह आंकड़े सामने आ गए, तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि देश की सबसे बड़ी सामाजिक आबादी अब तक हाशिए पर रही है। इससे न केवल नीतियों में बदलाव आएगा, बल्कि राजनीतिक वर्चस्व के समीकरण भी पूरी तरह बदल सकते हैं।

कांग्रेस आज इसे लेकर उत्साहित ज़रूर है — क्योंकि उसे लगता है कि वह OBC वर्ग के समर्थन से फिर सत्ता में वापसी कर सकती है। लेकिन सवाल यह है कि जिस पार्टी ने मंडल आयोग की सिफारिशों को वर्षों तक दबाए रखा, आज वह इसे सामाजिक न्याय नहीं, बल्कि अपनी राजनीतिक रोटियों के लिए इस्तेमाल कर रही है।


लेकिन जब कांग्रेस सत्ता में थी तो उस समय इस रिपोर्ट को गंभीरता से लागू नहीं किया। यह रिपोर्ट लगभग एक दशक तक सरकारी अलमारियों में धूल फांकती रही। यह स्पष्ट करता है कि कांग्रेस को इस बात का अंदेशा था कि यदि यह आंकड़े सार्वजनिक हुए, तो सामाजिक समूहों के बीच नया जागरण और राजनीतिक लामबंदी शुरू हो सकती है, जो उनके पारंपरिक वोट बैंक को चुनौती दे सकती थी।

आज, कांग्रेस हर मंच पर OBC, SC और ST समुदायों के अधिकारों की बात करती है। वह यह भी उजागर करती है कि उच्च पदों पर इन वर्गों का प्रतिनिधित्व अत्यंत कम है। हाल ही में संसद में यह मुद्दा उठाया गया कि सचिव स्तर पर OBC का प्रतिनिधित्व लगभग नगण्य है। लेकिन विडंबना यह है कि जब कांग्रेस के पास सत्ता थी, तो उसने न तो इन आंकड़ों को सार्वजनिक किया और न ही किसी व्यापक सामाजिक सुधार की दिशा में ठोस कदम उठाए।

अब जब भाजपा सरकार जातीय जनगणना की ओर कदम बढ़ा रही है, कांग्रेस उसे 'मजबूरी में लिया गया फैसला' कहकर परिभाषित कर रही है। लेकिन इससे यह भी प्रतीत होता है कि कांग्रेस अब उसी डेटा को राजनीतिक हथियार बनाना चाहती है जिसे पहले उसने नज़रअंदाज़ किया था। आने वाले चुनावों में कांग्रेस इस आधार पर न केवल सामाजिक मुद्दे उठाएगी, बल्कि यह भी दर्शाने की कोशिश करेगी कि भाजपा जातीय आंकड़ों की राजनीति में पिछड़ गई है।

जातीय जनगणना के आँकड़े अगर पहले ही सार्वजनिक होते, तो भारत का सामाजिक और राजनीतिक विमर्श आज और परिपक्व होता। लेकिन दशकों तक इन्हें केवल सरकारी फाइलों तक सीमित रखा गया — या तो राजनीतिक असहजता के चलते या फिर सत्ता समीकरणों के डर से।

आज जब देश डेटा विज्ञान, कृत्रिम बुद्धिमत्ता और लक्ष्य आधारित नीति निर्माण की ओर बढ़ रहा है, तो यह ज़रूरी है कि हमारे पास समाज के प्रत्येक तबके का सही-सही आँकड़ा हो। जातीय जनगणना केवल जनगणना नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक जवाबदेही का आधार बन सकती है — बशर्ते इसका उपयोग सामाजिक न्याय और प्रतिनिधित्व के लिए हो, न कि केवल राजनीतिक फायदे के लिए।

कांग्रेस की भूमिका जातीय जनगणना के संदर्भ में दोहरी रही है  एक ओर उसने इसकी वकालत की, दूसरी ओर जब अवसर था, तब चुप्पी साधी। अब जब राजनीतिक ज़मीन बदल रही है, तो वह उसी मुद्दे को नया राजनीतिक अवसर मान रही है। भारतीय लोकतंत्र के लिए यह ज़रूरी है कि जातीय जनगणना को एक निष्पक्ष, वैज्ञानिक और न्यायसंगत प्रक्रिया के रूप में अपनाया जाए — ताकि यह केवल एक राजनीतिक उपकरण न बनकर सामाजिक परिवर्तन का मार्गदर्शक बन सके।

बिहार, तेलंगाना और कर्नाटक का उदाहरण: ही देख लीजिए वहां किस प्रकार से जातीय जनगणना का राजनीतिक इस्तेमाल हुआ
 बिहार सरकार ने जातीय जनगणना करवा कर अपना OBC वोट बैंक को सशक्त किया।
कर्नाटक सरकार ने जातीय आंकड़ों के आधार पर 'अन्न भाग्य' जैसी योजनाएं लागू की।
तेलंगाना सरकार ने जातीय गणना को आधार बनाकर स्थानीय समुदायों को योजनाओं से जोड़ा, जो चुनावी फायदे में बदला।


भाजपा हिंदुत्व की राजनीति में जातीय जनगणना क्यों करवा रही हैं जबकि भाजपा का मूल एजेंडा ‘एक राष्ट्र, एक संस्कृति’ का रहा है, लेकिन अब वह भी जातीय जनगणना के समर्थन में सामने आई है। इसका एक कारण है कि आज OBC वर्ग एक बड़ा वोट बैंक बन चुका है। भाजपा यह समझ चुकी है कि केवल हिंदुत्व की राजनीति से चुनाव नहीं जीते जा सकते। अब उसे सामाजिक न्याय और प्रतिनिधित्व का ध्यान रखना पड़ रहा है।
आज़ादी के 75 साल बाद इसकी ज़रूरत क्यों पड़ी, यदि भारत सच में समता और समानता की ओर बढ़ना चाहता है, तो यह जानना ज़रूरी है कि किस जाति की आर्थिक, शैक्षणिक और सामाजिक स्थिति क्या है। केवल आरक्षण देना काफी नहीं है, यह देखना भी ज़रूरी है कि उसका लाभ किन्हें मिल रहा है और कौन वंचित है। इसलिए जातीय जनगणना आज की सबसे बड़ी सामाजिक ज़रूरत बन चुकी है।
आज जब Artificial Intelligence और डेटा विज्ञान के माध्यम से योजनाएं बनाई जा रही हैं, तो जातीय आंकड़े भी एक महत्वपूर्ण उपकरण बन सकते हैं। इससे सरकारें लक्षित योजनाएं बना सकती हैं और संसाधनों का सही वितरण कर सकती हैं।
जातीय जनगणना केवल आंकड़ों का विषय नहीं है, यह भारत की सामाजिक संरचना को समझने का साधन है। यदि इसका उपयोग समाजिक न्याय, समानता और सशक्तिकरण के लिए किया गया, तो यह भारत को एक नई दिशा देगा। लेकिन यदि इसका उपयोग केवल राजनीतिक लाभ और जातीय ध्रुवीकरण के लिए हुआ, तो यह देश के सामाजिक ताने-बाने को नुकसान पहुँचा सकता है। इसलिए इस निर्णय को संवेदनशीलता और निष्पक्षता के साथ लागू करना समय की सबसे बड़ी माँग है।

Comments

Popular posts from this blog

Gen-Z प्रोटेस्ट: जनता की आवाज़ या सोशल मीडिया का खेल?